शनिवार, 20 मार्च 2010
एकाग्रता
हमारे अन्दर एकाग्रता बहुत अधिक मौजूद होती है । उसे बढ़ाने कि जरूरत नहीं होती है । जैसे माँ अपने बच्चे से प्रेम करती है, कितनी भी देर तक कर सकती है। उसे बच्चे से प्रेम करने के लिए एकाग्रता बढ़ाने कि जरूरत नहीं। लेकिन वन्ही जब वो कोई दूसरा कार्य करती है तो वंहा पर एकाग्रता कि जरूरत पड़ती है। वंहा उसका मन नहीं लगता है। यही समस्या हम सभी के साथ है कंही न कंही है । किसी कार्य में यदि अच्छी भावना हो, उसके प्रति प्रेम हो तो उस कार्य में एकाग्रता अपने आप होने लगती है । वंहा पर आपको मन जबरजस्ती लगाना नहीं पड़ेगा। अपने आप लग जायेगा। मेरा कहने का अर्थ है कि किसी भी कार्य के प्रति भावना लायें , उससे प्रेम करें तो एकाग्रता अपने आप लग जाएगी। यही हमें समझना है।
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