pradosh जी
क्या हम उसे कोई वस्तु मानते हैं जिसे देखा और अनुभव किया जा सके। सामान्यतयः ईश्वर की धारणा विश्वाश पर चलती है। पर ध्यान विश्वाश पर नही चलता है । इसका ध्यान से कोई मतलब नही होता है । ध्यान प्रत्यक्ष अनुभव पर आधारित है जिसमे हमें यह pata hota है की विचारों से हमें दुःख होता है, काम क्रोध मोह लोभ हमें jakde हुए है । tabhee to हम इनके पार जाने की sochten है । ध्यान हमें इनके पार ले जाता है। विचारों के पार जाना होता है , अर्थात विचार विहीनता की स्थिति । इसकी अनुभूति मुझे होती, इसे ईश्वर कह लो या कुछ और ।
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